वट सावित्रि व्रत
वट सावित्रि व्रत 03 से 05 जून विशेष ऒर 17 से 20 जून
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अखंड सौभाग्य एवं संतान दायक यह व्रत प्रतिवर्ष ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा (गुजरात में) को मनाया जाता है परंतु इस भारत के दूसरे प्रांत में कुष्ण पक्ष की अमावस्या को इसे दो बार मनाया जाता है।
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वट सावित्रि व्रत की यह कथा सत्यवान-सावित्रि के नाम से उत्तर भारत में विशेष रूप से प्रचलित हैं। कथा के अनुसार एक समय की बात है कि मद्रदेश में अश्वपति नाम के धर्मात्मा राजा का राज था| उनकी कोई भी संतान नहीं थी| राजा ने संतान हेतु यज्ञ करवाया। कुछ समय बाद उन्हें एक कन्या की प्राप्ति हुई जिसका नाम उन्होंने सावित्री रखा| विवाह योग्य होने पर सावित्री के लिए द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पतिरूप में वरण किया| सत्यवान वैसे तो राजा का पुत्र था लेकिन उनका राज-पाट छिन गया था और अब वह बहुत ही द्ररिद्रता का जीवन जी रहे थे। उसके माता-पिता की भी आंखो की रोशनी चली गई थी। सत्यवान जंगल से लकड़ियां काटकर लाता और उन्हें बेचकर जैसे-तैसे अपना गुजारा कर रहा था। जब सावित्रि और सत्यवान के विवाह की बात चली तो नारद मुनि ने सावित्रि के पिता राजा अश्वपति को बताया कि सत्यवान अल्पायु हैं और विवाह के एक वर्ष बाद ही उनकी मृत्यु हो जाएगी। हालांकि राजा अश्वपति सत्यवान की गरीबी को देखकर पहले ही चिंतित थे और सावित्रि को समझाने की कोशिश में लगे थे। नारद की बात ने उन्हें और चिंता में डाल दिया लेकिन सावित्रि ने एक न सुनी और अपने निर्णय पर अडिग रही। अंततः सावित्री और सत्यवान का विवाह हो गया| सावित्री सास-ससुर और पति की सेवा में लगी रही। नारद मुनि ने सत्यवान की मृत्यु का जो दिन बताया था, उसी दिन सावित्री भी सत्यवान के साथ वन को चली गई। वन में सत्यवान लकड़ी काटने के लिए जैसे ही पेड़ पर चढ़ने लगा, उसके सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी और वह सावित्री की गोद में सिर रखकर लेट गया। कुछ देर बाद उनके समक्ष अनेक दूतों के साथ स्वयं यमराज खड़े हुए थे। जब यमराज सत्यवान के जीवात्मा को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चलने लगे, पतिव्रता सावित्री भी उनके पीछे चलने लगी। आगे जाकर यमराज ने सावित्री से कहा, ‘हे पतिव्रता नारी! जहां तक मनुष्य साथ दे सकता है, तुमने अपने पति का साथ दे दिया। अब तुम लौट जाओ।’ इस पर सावित्री ने कहा, ‘जहां तक मेरे पति जाएंगे, वहां तक मुझे जाना चाहिए। यही सनातन सत्य है’ यमराज सावित्री की वाणी सुनकर प्रसन्न हुए और उसे वर मांगने को कहा। सावित्री ने कहा, ‘मेरे सास-ससुर अंधे हैं, उन्हें नेत्र-ज्योति दें। यमराज ने ‘तथास्तु’ कहकर उसे लौट जाने को कहा और आगे बढ़ने लगे। किंतु सावित्री यम के पीछे ही चलती रही। यमराज ने प्रसन्न होकर पुन: वर मांगने को कहा। सावित्री ने वर मांगा, ‘मेरे ससुर का खोया हुआ राज्य उन्हें वापस मिल जाए|’ यमराज ने ‘तथास्तु’ कहकर पुनः उसे लौट जाने को कहा, परंतु सावित्री अपनी बात पर अटल रही और वापस नहीं गयी| सावित्री की पति भक्ति देखकर यमराज पिघल गए और उन्होंने सावित्री से एक और वर मांगने के लिए कहा तब सावित्री ने वर मांगा, ‘मैं सत्यवान के सौ पुत्रों की मां बनना चाहती हूं कृपा कर आप मुझे यह वरदान दें’ सावित्री की पति-भक्ति से प्रसन्न हो इस अंतिम वरदान को देते हुए यमराज ने सत्यवान की जीवात्मा को पाश से मुक्त कर दिया और अदृश्य हो गए। सावित्री जब उसी वट वृक्ष के पास आई तो उसने पाया कि वट वृक्ष के नीचे पड़े सत्यवान के मृत शरीर में जीव का संचार हो रहा है। कुछ देर में सत्यवान उठकर बैठ गया। उधर सत्यवान के माता-पिता की आंखें भी ठीक हो गईं और उनका खोया हुआ राज्य भी वापस मिल गया।F/g+/t @ Dwarkadhish pandaji
वट सावित्रि व्रत का महत्व
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जैसा कि इसकी कथा से ही ज्ञात होता है कि यह पर्व हर परिस्थिति में अपने जीवनसाथी का साथ देने का संदेश देता है। इससे ज्ञात होता है कि पतिव्रता स्त्री में इतनी ताकत होती है कि वह यमराज से भी अपने पति के प्राण वापस ला सकती है। वहीं सास-ससुर की सेवा और पत्नी धर्म की सीख भी इस पर्व से मिलती है। मान्यता है कि इस दिन सौभाग्यवती स्त्रियां अपने पति की लंबी आयु, स्वास्थ्य और उन्नति और संतान प्राप्ति के लिये यह व्रत रखती हैं।
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वट सावित्रि व्रत पूजा विधि
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वट सावित्रि व्रत में वट यानि बरगद के वृक्ष के साथ-साथ सत्यवान-सावित्रि और यमराज की पूजा की जाती है। माना जाता है कि वटवृक्ष में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देव वास करते हैं। अतः वट वृक्ष के समक्ष बैठकर पूजा करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। वट सावित्री व्रत के दिन सुहागिन स्त्रियों को प्रातःकाल उठकर स्नान करना चाहिये। इसके बाद रेत से भरी एक बांस की टोकरी लें और उसमें ब्रहमदेव की मूर्ति के साथ सावित्री की मूर्ति स्थापित करें। इसी प्रकार दूसरी टोकरी में सत्यवान और सावित्री की मूर्तियाँ स्थापित करे दोनों टोकरियों को वट के वृक्ष के नीचे रखे फिर निम्न श्लोक से सावित्री को अर्घ्य दें
अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते।
पुत्रान् पौत्रांश्च सौख्यं च गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते॥
तत्पश्चात सत्यवान और सावित्री की मूर्तियों की पूजा करे और वट वृक्ष को जल दे। वट-वृक्ष की पूजा हेतु जल, फूल, रोली-मौली, कच्चा सूत, भीगा चना, गुड़ इत्यादि चढ़ाएं और
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इसके बाद निम्न श्लोक से वटवृक्ष की प्रार्थना करें
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यथा शाखाप्रशाखाभिर्वृद्धोऽसि त्वं महीतले।
तथा पुत्रैश्च पौत्रैश्च सम्पन्नं कुरु मा सदा॥
बड़ के पत्तों के गहने पहनकर वट सावित्री की कथा सुनें। भीगे हुए चनों का बायना निकालकर, नकद रुपए रखकर सासुजी के चरण-स्पर्श करें। यदि सास वहां न हो तो बायना बनाकर उन तक पहुंचाएं। वट तथा सावित्री की पूजा के पश्चात प्रतिदिन पान, सिन्दूर तथा कुंमकुंम से सौभाग्यवती स्त्री के पूजन का भी विधान है। यही सौभाग्य पिटारी के नाम से जानी जाती है। सौभाग्यवती स्त्रियों का भी पूजन होता है। अपने सामर्थ्य के हिसाब से पूजा समाप्ति पर ब्राह्मणों को वस्त्र तथा फल आदि वस्तुएं बांस के पात्र में रखकर दान करें।
फिर बाँस के पंखे से सत्यवान-सावित्री को हवा करें। बरगद के पत्ते को अपने बालों में लगायें। अब धागे को बरगद के पेड़ में बाँधकर यथा शक्ति 5,11,21,51, या 108 बार परिक्रमा करें इसके बाद सावित्री-सत्यवान की कथा पंडित जी से सुने तथा उन्हें यथा सम्भव दक्षिणा दें या कथा स्वयम पढे। फिर अपने-अपने घरों को लौट जायें। घर में आकर उसी पंखें से अपने पति को हवा करें तथा उनका आशीर्वाद लें।
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अंत में निम्न संकल्प लेकर उपवास रखें
मम वैधव्यादिसकलदोषपरिहारार्थं ब्रह्मसावित्रीप्रीत्यर्थं
सत्यवत्सावित्रीप्रीत्यर्थं च वटसावित्रीव्रतमहं करिष्ये। उसके बाद शाम के वक्त मीठा भोजन करे।
सामग्री
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सत्यवान-सावित्री की मूर्ति,, कपड़े की बनी हुई
बाँस का पंखा
लाल धागा
धूप
मिट्टी का दीपक
घी
फूल
फल( आम, लीची तथा अन्य फल)
कपड़ा – 1.25 मीटर का दो
सिंदूर
जल से भरा हुआ पात्र
रोली
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Mo:~8511028585
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