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संत एकनाथ जी की कथा मृत्यु का पुण्य स्मरण Death Race Death Story

संत एकनाथ जी की कथा
मृत्यु का पुण्य स्मरण

F/in/t @ Dwarkadhish Pandaji
Mo:~ 8511028585

  संत एकनाथ जी के पास एक बूढ़ा पहुँचा और बोलाः- आप भी गृहस्थी, मैं भी गृहस्थी। आप भी बच्चों वाले, मैं भी बच्चों वाला।

आप भी सफेद कपड़ों वाले, मैं भी सफेद कपड़े वाला।

  लेकिन आपको लोग पूजते हैं, आपकी इतनी प्रतिष्ठा है, आप इतने खुश रह सकते हो, आप इतने निश्चिन्त जी सकते हो और मैं इतना परेशान क्यों.?

  आप इतने महान् और मैं इतना तुच्छ क्यों.?

  एकनाथजी ने सोचा कि इसको सैद्धान्तिक उपदेश देने से काम नहीं चलेगा, उसको समझ में नहीं आयेगा, कुछ किया जाय…

   एकनाथ जी ने उसे कहाः *चल रे सात दिन में मरने वाले..! तू मुझसे क्या पूछता है अब क्या फर्क पड़ेगा? सात दिन में तो तेरी मौत है।
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    वह आदमी सुनकर सन्न रह गया। एकनाथ जी कह रहे हैं सात दिन में तेरी मौत है, बात पूरी हो गई तो?

   वह आदमी अपनी दुकान पर आया, लेकिन उसके दिमाग में एकनाथ जी के शब्द घूम रहे हैं- सात दिन में मौत है.......

  उसको धन कमाने का जो लोभ था, हाय-हाय थी वह शान्त हुई। अपने प्रारब्ध का जो होगा वह मिलेगा। ग्राहकों से लड़ पड़ता था तो अब प्रेम से व्यवहार करने लगा। शाम होती थी तब मदिरा के घूँट पी लेता था वह अब फीका हो गया।

    एक दिन बीता….दूसरा बीता….तीसरा बीता….।

   उसे भोजन में विभिन्न प्रकार के, विभिन्न स्वाद के व्यंजन, आचार, चटनी आदि चाहिए था, जरा सी कमी पड़ने पर आग-बबूला हो जाता था। अब उसे याद आने लग गया कि तीन दिन बीत गये, अब चार दिन ही बचे। कितना खाया-पिया ! आखिर क्या.?

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  चौथा दिन बीता….पाँचवाँ दिन आया…।

   बहू पर क्रोध आ जाता था, बेटे नालायक दिखते थे, अब तीन दिन के बाद मौत दिखने लगी। सब परिवारजनों के अवगुण भूल गया, गद्दारी भूल गया। समाधान पा लिया कि संसार में ऐसा ही होता है। यह मेरा सौभाग्य है कि वे मुझ से गद्दारी और नालायकी करते हैं तो उनका आसक्तिपूर्ण चिन्तन मेरे दिल में नहीं होता है, यदि आसक्तिपूर्ण चिन्तन होगा तो फिर क्या पता इस घर में चूहा होकर आना पड़े या साँप होकर आना पड़े या चिड़ियाँ होकर आना पड़े, कोई पता नहीं है।

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  पुत्र और बहुएँ गद्दार हुई हैं तो अच्छा ही है क्योंकि तीन दिन में अब जाना ही है।

  इतने समय में मैं विट्ठल को याद कर लूँ- विट्ठला… विट्ठला….विट्ठला… भगवान का स्मरण चालू हो गया।

  जीवन भर जो मंदिर में नहीं गया था, संतों को नहीं मानता था उस बूढ़े का निरन्तर जाप चालू हो गया।

 संसार की तू-तू, मैं-मैं, तेरा- मेरा सब भूल गया।

   छट्ठा दिन बीतने लगा।

   ज्यों-ज्यों समय जाने लगा त्यों- त्यों बूढ़े का भक्तिभाव, नामस्मरण, सहज-जीवन, सहनशक्ति, उदारता, प्रेम, विवेक, आदि सब गुण विकसित होने लगे।

   कुटुम्बी दंग रह गये कि इस बूढ़े का जीवन इतना परिवर्तित कैसे हो गया ?

  हम रोज मनौतियाँ मनाते थे कि यह बूढ़ा कब मरे, हमारी जान छूटे।

  बहुत पसारा मत करो कर थोड़े की आश।

बहुत पसारा जिन किया वे भी हो गये निराश।।

  उस बूढ़े का छट्ठा दिन बीत रहा है। उसकी प्रार्थना में उत्कण्ठा आ गई है कि "हे भगवान ! मैं क्या करूँ ? मेरे कर्म कैसे कटेंगे.?

  विठोबा… विठोबा… माजा विट्ठला… माजा विट्ठला…. जाप चालू है। रात्रि में नींद नहीं आयी।

  रविदास की बात उसको शायद याद आ गई होगी, अनजाने में उसके जीवन में रविदास चमका होगा।

*रविदास रात न सोइये दिवस न लीजिए स्वाद,*

*निश दिन हरि को सुमरीए छोड़ सकल प्रतिवाद।*

  बूढ़े की रात अब सोने में नहीं गुजरती, विठोबा के स्मरण में गुजर रही है।

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 सातवें दिन प्रभात हुई।

  बूढ़े ने कुटुम्बियों को जगायाः “बोला माफ करना, किया कराया माफ करना, मैं अब जा रहा हूँ।“

   कुटुम्बी रोने लगे किः अब तुम बहुत अच्छे हो गये हो, अब न जाते तो अच्छा होता।

   बूढ़ा कहता हैः गोबर से लीपकर चौका लगाओ, मेरे मुँह में तुलसी का पत्ता दो, गले में तुलसी का मनका बाँधो, आप लोग रोना मत।

   मुझे विठोबा के चिन्तन में मरने देना।

  कुटुम्बी सब परेशान हैं, इतने में एकनाथ जी वहाँ से गुजरे। कुटुम्बी भागे एकनाथजी के पैर पकड़े, आप घर में पधारो।

  एकनाथजी ने घर आकर बूढ़े से पूछाः क्यों, क्या बात है, क्यों सोये हो.?

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   महाराजजी ! आप ही ने तो कहा था कि सात दिन में तुम्हारी मौत है। छः दिन बीत गये यह आखिरी दिन है।

  एकनाथजी उस बूढ़े से कहने लगे, तुमने मुझसे कहा था कि आप में और मुझमें क्या फर्क है।

   मैंने तुम्हें कहा कि तुम्हारी सात दिन में मौत होगी, तुमने अपनी मौत को सात दिन दूर देखा।

  अब बताओ, तुमने सात दिन में आने वाली मौत को देखकर कितनी बार मदिरा पिया ?”

    “एक बार भी नहीं।“

“कितनी बार क्रोध किया ?”

    “एक बार भी नहीं।“

“कितने लोगों से झगड़ा किया ?”

    “किसी से भी नहीं।“

“तुमको सात दिन, छः दिन, पाँच दिन, चार दिन दूर मौत दिखी।

   जितनी- जितनी मौत नजदीक आती गई उतना उतना तुम ईश्वरमय होते गये, संसार फीका होता गया। यह तुम्हारा अनुभव है कि नहीं ?
हाँ महाराज ! मेरा अनुभव है।

   सात दिन मौत दूर है तो संसार में कहीं रस नहीं दिखा, भगवान् में प्रीति बढ़ी, जीवन भक्तिमय बन गया।
भगवान् का नाम सदा याद रखो हमारी मृत्यु सात क्या किसी भी पल आ सकती है...

  सदा याद रखना है कि हम सब सात दिन में मरने वाले हैं।

राम राम जी

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